‘मैं प्रोग्राम देने आया हूं, चेहरा दिखाने नहीं: बिस्मिल्ला खान’

चक्रधर समारोह करिता रायगढ़ला जातांना शहनाईनवाज उस्ताद बिस्मिल्ला खान तासेक भरासाठी बिलासपुरच्या रेलवे स्टेशनावर थांबले होते. त्यांची आठवण म्हणून हा लेख लिहिला होता. पण तो हिंदीत आहे...इथे देत आहे...

‘रोको-रोको भई...मेरा सामान, मेरे साज कहां हैं...? मेरा सामान-साज आगे चलेंगे...तब मैं भी आगे बढ़ूंंगा...।’

साज के प्रति इतने लगाव से ये बातें कही थीं भारत रत्न शहनाईनवाज उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने। वे चक्रधर समारोह में शामिल होने के लिए सारनाथ एक्सप्रेस से रायगढ़ जाते समय कुछ देर के लिए बिलासपुर रेलवे स्टेशन पर रुके थे। ट्रेन के एसी कोच से उतरते ही उन्हें व्हील चेयर पर बैठाया गया (उन्हें चलने में परेशानी होती थी, उम्र का तकाजा जो ठहरा)। फिर भी तबियत मस्तमौला, खुशमिजाज़। स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर-एक पर लोगों से घिरे खान साहब की व्हील चेयर रफ्ता-रफ्ता वीअाईपी रुम की ओर बढ़ रही थी कि उन्होंने पूछा-‘मेरे साज़ कहां हैं...!’

एक झटके से व्हील चेयर रुक गई। उनके शागिर्दों ने बताया-‘कोच जहां खड़ा था, सामान वहीं रखा है। उसे सीधे कार में रखने का इंतजाम किया जा रहा है।’

यह सुनते ही खान साहब बिगड़ पड़े-‘पहले मेरा सामान आगे, मेरे सामने लाओ...तब मैं आगे जाऊंगा...!’

फिर आसपास खड़े लोगों से बोले-‘भई...मैं यहां प्रोग्राम देने आया हूं...चेहरा दिखाने के लिए नहीं आया...। साज ही साथ नहीं होगा, तो फिर मैं क्या करुंगा...?’

एक-दो लोग सामान की ओर लपके, तो उन्होंने फिर कहा-‘अरे भाई, जरा संभलकर साज उठाना...।’

उम्र के इस पड़ाव पर यह सादगी, सतर्कता और अपने साज के प्रति ऐसा लगाव...। शायद यही उनकी कामयाबी का राज़ था। स्टेशन पर उनका ठहराव कोई सवा घंटे का था। लेकिन इस दौरान संगीत के प्रति ललक उनकी बातों से साफ झलक रही थी। वे बार-बार कह रहे थे-संगीत को अपने जीवन का अंग बनाओ, उसमें रमने, डूबने का प्रयास करो, दुनिया की आधी अशांति खत्म हो जाएगी। संगीत ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां आस्तीनें नहीं खिंचतीं। संगीत सुनकर देखिए, वह आपको भावविभोर कर देगा।’

विभिन्न उदाहरणों से उन्होंने अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘आज जरुरत इस बात की है कि छोटे बच्चों को संगीत की शिक्षा आवश्यक रुप से दी जाए। पूरा कोर्स भले मत कराइए, पर अपने बच्चे को कम से कम एक भजन तो सिखाओ ताकि वह भी संगीत का अानंद उठा सके।’ बातें करते-करते वे संगीत में खो से जाते थे।

उनकी शहनाई सुनने मौका (कैसेट पर, छोटे परदे पर) तो कई बार मिला था, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष गुनगुनाते हुए देखने का अनुभव...ताउम्र सहेज कर रखने वाली बात थी। जिस सहजता से वे गुनगुना रहे थे, उससे जाहिर होता था कि उन्हें शास्त्रीय गायन में भी महारत हासिल है। उनके आलाप लेने के अंदाज से महसूस हुआ कि यह शैली किराना घराने के काफी करीब है। (गौरतलब है कि किराना घराने के गायक भीमसेन जोशी भी उस्ताद जी के समकालीन हैं)।

सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे। बातचीत के क्रम में वे ‘भैरव’ राग की प्रसिद्ध बंदिश गुनगुना उठे-‘अल्लाह ही अल्लाह...।’ इसके साथ ही वह छोटा सा कमरा बरबस ही वाह-वाह से गूंज उठा। इतने में उनके शागिर्दों ने बताया कि गाड़ी तैयार हो गई है और वे हम सब से विदा लेते हुए कार की ओर बढ़ गए। उनका काफिला रायगढ़ की ओर रवाना हो गया। पर जेहन में वह खुशगवार सुबह हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गई यादगार बनकर।

हाजिरजवाब खान साहब

हमारे साथ स्थानीय आकाशवाणी केंद्र के उद्घोषक भी थे। उन्होंने आकाशवाणी की ओर से उन्हें पुष्पगुच्छ देते हुए अपना परिचय दिया। कहा - उस्ताद जी आपकी शहनाई से हमारी आकाशवाणी की सुबह की सभा शुरू होती है...।’ यह सुनकर वे मुस्कुराए। आसपास खड़े लोगों पर एक नजर डाली। फिर थोड़ा सा ठहरकर बोले - ‘मियां इसमें कोई नई बात नहीं है। देश की कौन सी आकाशवाणी है, जिसकी सुबह हमारी शहनाई से नहीं होती...।’

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प्रतिक्रिया

छान‌ किस्सा आहे.

संगीत सुनकर देखिए, वह आपको भावविभोर कर देगा।

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